हम जहां से आते हैं उसका बहुसंख्यक मध्यमवर्ग समाज अपनी जिंदगी कॉन्वेंट, किताबें, क्लास, कल्चर,कायदे-कानून जैसे कठिन शब्दों को हटाकर जीता है, लेकिन वो रिसर्च की लेबोरेटरी है, सिविल सर्वेंट,डिप्लोमैट,ब्यूरोक्रैट, अरिस्टोक्रैट से लेकर टीपामार लीडर तक। जहां रहने पढ़ने और बढ़ने वाले बच्चों ने गली, मोहल्ले, दुआर,दलान, चौपाल और बैठकी से अपनी जिंदगी शुरू की है, गोली अंटा,गुल्ली-डंडा,लट्टू पतंग ताश चेस कैरम से शुरू हुई बैठकबाजी फेसबुक, ट्विटर,ब्लॉग, स्काइप पर आ टिकी है। कई बार लगता है सत्तर के दशक में पैदा हुई पीढ़ी की हालत बहुत हद तक उस बंदर की रही, जिसकी शकल पर जमाने भर के कॉस्मेटिक टेस्ट किए गए। जो इस बात का दावा कर सकता है कि उसने सिर्फ आजादी नहीं देखी,बाकी सबकुछ देख लिया। इंडिया और दुनिया को रंग बदलते देखा है, मिथकों को टूटते देखा है सपनों को सच होते देखा है।
ये दरिया और दीयारा किनारे एक कब्रिस्तान टाइप का कस्बा है। एक तरफ नदी की कगार है लिहाजा चौराहे की जगह जिंदगी तिराहे पर बसती है। इसके टी प्वाइंट पर एक टी स्टॉल है जहां सुबह से शाम तक पॉलिटिक्स होती है, पेपर रेगुलर नहीं आता, आती जाती बसों से या किसी सज्जन के सौजन्य से, देर से ही पर सही खबरें पहुंच जाती है। कुछ लोग आदतन रात को रेडियो सुनते है जिसपर सुबह से बहस शुरू होती है। इलाके में खंभे और ट्रांस्फरमर हैं तार नहीं है। प्राइमरी स्कूल है पर मास्टर नहीं है। हाईस्कूल का बड़ा नाम है जो खूब धकाधक चलता है और उसमें लोकल लड़कों की चलती है। पर असल चलती पड़ोसी कस्बे के गर्ल्स स्कूल की है जहां से फॉर्म भरने पर सेंटर यहां के स्कूल में पड़ता है। यही वजह है कि जगह दो वजहों से लोकप्रिय थी एक तो श्मशान घाट के लिए, दूसरे लड़कियों की शादी के लिए जरुरी मैट्रिक पास के सेंटर के लिए। तिराहे की पतली सड़क पर सामने देखते हुए दाएं बाएं गरदन मोड़ने पर खुले खेतों के बीच दो तीन किमी की दूर पर दो खस्ताहाल सेटलमेंट दिखता.. एक ब्लॉक कॉलोनी दूसरी ओर कॉलेज। कॉलोनी रोड पर थी कॉलेज खेत में।
गांव शिक्षा और सामाजिक समस्याओं को लेकर जितना सुस्त था, सियासत को लेकर उतना ही चुस्त। धर्म में जबरदस्त आस्था, शिवरात्रि को पूरा इलाका पास के शिवालय उमड़ पड़ता, दियरा से आए दूध की गंगा बह जाती, लेकिन दशहरे में हनुमान जी रखे जाते। इसके पीछे कोई लॉजिक या दुर्भावना नहीं थी, अगड़ी जातियों को मूर्ति रखने में दिलचस्पी नहीं थी, एक जेनरेटर वाला था जो भाड़े पर टीवी की बैटरी चार्ज करता, वो हनुमान जी का भक्त था, बस। थोड़ा हट के निचले टोला में दुर्गाजी रखी जाती लेकिन वहां के गांव के बबुआन सिर्फ गोड़ लगने जाते थे।
गांव का सबसे धनी जमींदार जो आधे बाजार का भी मालिक था, शाम को टॉपलेस होकर मैली कुचली धोती में अपने मार्केट के सामने लगने वाले रोजाना सब्जी बाजार के दुकानदारों से टैक्स के तौर पर अंगोछे में फ्री सब्जियां वसूलता और मुंबई में रहने वाले उसके बेटे बहू अपने बच्चे का बर्थ डे फाइव स्टार में मनाते। उसकी सिंपल लीविंग किसी लीजेंड से कम नहीं। एक दबंग गांव जिसका इलाके में नाम था,एक हवेली में तो बाकायदा हाथी होता था। दबंग परिवारों के नौजवान बबुआन कहलाते,एक कॉन्फिडेंस, अहम, अकड़ और ऐंठ का मिक्सचर हर नर मादा में। ऐसा नहीं कि गांव में पढ़ेलिखे और भले लोग नहीं थे, पर ज्यादातर बाहर निकल गए, जो बच गए वो पार्टी पोलटिक्स से दूर पैसिव जीवन बीता लेते।
भूमिका के लिहाज से ये थोड़ी लंबी है लेकिन चौपाल के श्रोता सूत्रधार के बारे में जानना चाहेंगे वो कहां से आया है..
ऐसे भी किसी चीज की शुरुआत बिना टाइम स्पेस के कैसे हो सकती है.. चाहे वो विचार ही क्यों ना हों..
विजयादशमी,2013