सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

चौपाल: टाइम एंड स्पेस

हम जहां से आते हैं उसका बहुसंख्यक मध्यमवर्ग समाज अपनी जिंदगी कॉन्वेंट, किताबें, क्लास, कल्चर,कायदे-कानून जैसे कठिन शब्दों को हटाकर जीता है, लेकिन वो रिसर्च की लेबोरेटरी है, सिविल सर्वेंट,डिप्लोमैट,ब्यूरोक्रैट, अरिस्टोक्रैट से लेकर टीपामार लीडर तक। जहां रहने पढ़ने और बढ़ने वाले बच्चों ने गली, मोहल्ले, दुआर,दलान, चौपाल और बैठकी से अपनी जिंदगी शुरू की है, गोली अंटा,गुल्ली-डंडा,लट्टू पतंग ताश चेस कैरम से शुरू हुई बैठकबाजी  फेसबुक, ट्विटर,ब्लॉग, स्काइप पर आ टिकी है। कई बार लगता है सत्तर के दशक में पैदा हुई पीढ़ी की हालत बहुत हद तक उस बंदर की रही, जिसकी शकल पर  जमाने भर के कॉस्मेटिक टेस्ट किए गए। जो इस बात का दावा कर सकता है कि उसने सिर्फ आजादी नहीं देखी,बाकी सबकुछ देख लिया। इंडिया और दुनिया को रंग बदलते देखा है, मिथकों को टूटते देखा है सपनों को सच होते देखा है।
ये दरिया और दीयारा किनारे एक कब्रिस्तान टाइप का कस्बा है। एक तरफ नदी की कगार है लिहाजा चौराहे की जगह जिंदगी तिराहे पर बसती है। इसके टी प्वाइंट पर एक टी स्टॉल है जहां सुबह से शाम तक पॉलिटिक्स होती है, पेपर रेगुलर नहीं आता, आती जाती बसों से या किसी सज्जन के सौजन्य से, देर से ही पर सही खबरें पहुंच जाती है। कुछ लोग आदतन रात को रेडियो सुनते है जिसपर सुबह से बहस शुरू होती है। इलाके में खंभे और ट्रांस्फरमर हैं तार नहीं है। प्राइमरी स्कूल है पर मास्टर नहीं है। हाईस्कूल का बड़ा नाम है जो खूब धकाधक चलता है और उसमें लोकल लड़कों की चलती है। पर असल चलती पड़ोसी कस्बे के गर्ल्स स्कूल की है जहां से फॉर्म भरने पर सेंटर यहां के स्कूल में पड़ता है। यही वजह है कि जगह दो वजहों से लोकप्रिय थी एक तो श्मशान घाट के लिए, दूसरे लड़कियों की शादी के लिए जरुरी मैट्रिक पास के सेंटर के लिए। तिराहे की पतली सड़क पर सामने देखते हुए दाएं बाएं गरदन मोड़ने पर खुले खेतों के बीच दो तीन किमी की दूर पर दो खस्ताहाल सेटलमेंट दिखता.. एक ब्लॉक कॉलोनी दूसरी ओर कॉलेज। कॉलोनी रोड पर थी कॉलेज खेत में।
   गांव शिक्षा और सामाजिक समस्याओं को लेकर जितना सुस्त था, सियासत को लेकर उतना ही चुस्त। धर्म में जबरदस्त आस्था, शिवरात्रि को पूरा इलाका पास के शिवालय उमड़ पड़ता, दियरा से आए दूध की गंगा बह जाती, लेकिन दशहरे में हनुमान जी रखे जाते। इसके पीछे कोई लॉजिक या दुर्भावना नहीं थी, अगड़ी जातियों को मूर्ति रखने में दिलचस्पी नहीं थी, एक जेनरेटर वाला था जो भाड़े पर टीवी की बैटरी चार्ज करता, वो हनुमान जी का भक्त था, बस। थोड़ा हट के निचले टोला में दुर्गाजी रखी जाती लेकिन वहां के गांव के बबुआन सिर्फ गोड़ लगने जाते थे।
 गांव का सबसे धनी जमींदार जो आधे बाजार का भी मालिक था, शाम को टॉपलेस होकर मैली कुचली धोती में अपने मार्केट के सामने लगने वाले रोजाना सब्जी बाजार के दुकानदारों से टैक्स के तौर पर अंगोछे में फ्री सब्जियां वसूलता और मुंबई में रहने वाले उसके बेटे बहू अपने बच्चे का बर्थ डे फाइव स्टार में मनाते। उसकी सिंपल लीविंग किसी लीजेंड से कम नहीं। एक दबंग गांव जिसका इलाके में नाम था,एक हवेली में तो बाकायदा हाथी होता था। दबंग परिवारों के नौजवान बबुआन कहलाते,एक कॉन्फिडेंस, अहम, अकड़ और ऐंठ का मिक्सचर हर नर मादा में। ऐसा नहीं कि गांव में पढ़ेलिखे और भले लोग नहीं थे, पर ज्यादातर बाहर निकल गए, जो बच गए वो पार्टी पोलटिक्स से दूर पैसिव जीवन बीता लेते।
भूमिका के लिहाज से ये थोड़ी लंबी है लेकिन चौपाल के श्रोता सूत्रधार के बारे में जानना चाहेंगे वो कहां से आया है..
ऐसे भी किसी चीज की शुरुआत बिना टाइम स्पेस के कैसे हो सकती है.. चाहे वो विचार ही क्यों ना हों..


विजयादशमी,2013

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

सामाजिक न्याय

बीस साल पहले रायजी बस स्टैंड पर एजेंटी करते थे, पहले सिर्फ सवारी बैठाते, लेकिन जब लालू मुख्यमंत्री बने तो रैली के लिए लोग भी भेजने लगे।  देह हाथ के तगड़े थे ही, किसी की मां-बहन करने के लिए वार्म अप होने की जरुरत नहीं थी। जुबान से कोई वाक्य लूज नहीं निकलता, गालियां आगे-पीछे से टाइट किए रहती।  समकालीन पॉलिटिक्स में इस तरह के टैलेंट कैंपस सेलेक्शन में ही उठ जाते है और नहीं तो क्या.. आपको क्या लगता है शहाबुदीन,आनंद मोहन,पप्पू यादव और ऐसे दर्जनों कमांडो पॉलिटिक्स में क्या पैराशूट लेकर कूदे थे।
 काम के हिसाब से तरक्की मिली तो दस साल में जिला परिषद के अध्यक्ष हो गए। माशाअल्लाह किस्मत ऐसी चमकी कि डीएम-एसपी वाले जिस रोड पर कभी इमरजेंसी में भी ट्रैफिक वाला कोच नहीं घुसाने देता था, उसी के मेन चौराहे पर कॉर्नर का बंगला जिसमें डीडीसी रहते थे, उसे खाली करवा कर अपने नाम करवाया।
    सामाजिक न्याय के बदौलत हुए इस परिवर्तन का असर गृह प्रवेश के पहले से ही दिखने लगा, पूरे शहर के दर्जनों डिश एंटिना रातोंरात उनकी छत पर आ गए,कैंपस में कंट्रोल रूम खुल गया। शाम होते ही बाउंड्री के बाहर बस स्टैंड का नजारा होता, उन दिनों देर रात टीवी सिक्स देखने का रिवाज था,वहां आने वाले मेहमानों को भी रात में लौटने की जल्दी नहीं होती।
 पूरे शहर में उनकी चलती है, पहले सिर्फ बसों से तसीलते थे और अब किससे नहीं वसूलते हैं।
            लेकिन संजय राय उतने लकी नहीं रहे,
   बाबू जी फोर्थ ग्रेड स्टाफ थे और वो खुद बाहुबल पर ओवरसीयर,इंजीनियर से सेटिंग कर छोटे मोटे ठेके हथिया लेते, जल्द ही उनको लगा कि लोकप्रिय हो गए है, लोग नेताजी पुकारने लगे, टिकट के लिए ट्राई मारी पर जब ट्रेन में नहीं मिलता है तो यहां विधायकी का कहां से मिलता।  इसी बीच बाबू जी रिटायर हो गए, नोट आया तो कॉन्फिडेंस साथ लाया, जिसके बाद  पूरी पब्लिक के सामने पहले निर्दलीय फिर हालात के सामने नंगे होकर खड़े हो गए।
 पर ऐसा भी नहीं कि सामाजिक न्याय राय बंधुओं से पहले नहीं था लेकिन तब मैं नहीं था लिहाजा देखी और समझी नहीं सिर्फ सुनी सुनाई बातें याद हैं। जैसे मिसिर जी कॉलेज में पढ़ने के नाम पर हॉस्टल में रहते लेकिन रोड पर मोटरसाइकिल छीनने का काम करते थे लेकिन कांग्रेस की लहर ने सब किए धरे पर पानी फेर दिया। जाति समीकरण में फिट उतरे तो नौजवान के नाम पर टिकट जुगाड़ लिए फिर मंत्री तक बने, जब तक उनका राज चला, उनके एक भाई जमाने के सर पर पेट्रोल विसर्जन करते रहे। वो कुंभकरण की तर्ज पर पांच साल में सिर्फ एक दिन अपने अग्रज को सेवा देते, चुनाव वाले दिन बूथ कैप्चरिंग ब्रिग्रेड का कमांडर बनकर।
     बिहार में अलग अलग जातियां अपने अपने वक़्त में सामाजिक न्याय के परचम गाड़ती रही हैं, पर सवाल है कि क्या इसे ही न्याय माना जाए। मुझे लगता है न्याय का मतलब है कि जाति,तबका,सियासत,प्रशासन या फिर मजहब, इसका कंट्रोल हर हाल में इसके बेहतरीन लोगों के पास होना चाहिए और किसी कारणवश उनकी कमी हो तो एक ऐसी मशीनरी और सिस्टम पैदा करे ताकि अच्छे लोग पैदा हो सके। वैसे लालू की बिरादरी की हालत बिहार में इतनी भी दबी कुचली नहीं जितना वो दिखाते हैं। एक से एक काबिल और बुद्धिजीवी थोक के भाव हैं, चाहे वो कोई भी फील्ड हो। लालू ने उनकी मदद क्यों नहीं ली।  गांवो में बहुसंख्यक पिछड़ेपन की बात सही है और उस स्तर पर पकड़ रखते हुए भी लालू ने उनके लिए कुछ नहीं किया, लालू लोगों की सोच बदल सकते थे। लालू के हाथों में उतनी ताकत थी कि चुटकी मसलते ही सबकुछ टाइट कर देते लेकिन उन्होंने सबकुछ खुला छोड़ दिया,अफसोस मौका गंवाने का है अब इंतजार कीजिए कि  बिहार को उतना पावरफुल मास लीडर कब मिलता है।  तबतक
  

सोमवार, 30 सितंबर 2013

पशुपालन और मैं

मैं एक वेटेनेरियन का बेटा हूं लिहाजा इसे संयोग ही कहें कि जब सजायाफ़्ता लालू यादव अपने सियासी सूर्यास्त के बाद में जेल में बदली जिंदगी का पहला सूरज देख रहे होंगे,मेरे बड़े भाई हम सारे भाइयों की तरफ से सरयू नदी में स्वर्गीय पिता की श्राद्धतिथि पर उन्हें जलांजलि दे रहे होंगे।
   दूसरा संयोग ये है कि अगस्त 1994 में पापा के निधन के ठीक छह महीने पहले फरवरी में मुझे करीब डेढ़ महीने अपनी दिल्ली की पढ़ाई रोककर पटना कैंप करना पड़ा था क्योंकि पिताजी का वेतन बीते सात महीने से बंद था।
वजह बताई कि बगैर एजी ऑफिस के पे स्लिप के सैलरी नहीं मिलेगी,  लेकिन एजी स्लिप बिना डायरेक्टर के लेटर के नही मिलेगी जबकि डायरेक्टर लेटर इसलिए नहीं देगा क्योंकि उसके ऑफिस में सर्विस बुक नहीं है।
 इधर जिला मुख्यालय रजिस्टर पर हाथ रखकर कसम खा रहा था कि प्रोमोशन के लिए चार साल पहले ही सर्विस बुक डायरेक्टर के पास भेज दी गई है और देखिए रिसिविंग भी आ गई है। पर सबसे बड़ा सवाल था कि
 बिना सर्विस-बुक के सर्विस कैसी।
   
  बेक जुलियस सर के दफ्तर के बाहर उनके पीए से मिलना, वहां लेटर इंट्री,रिसीविंग सब किया है मैंने। इस पूरे सिंडिकेट के लीडर हुआ करते थे एसबी सिन्हा, किंगपिन जिनकी मौत हो गई, महेश बाबू अगर कह रहे हैं तो समझिए काम हो गया। मुख्य आरोपी डायरेक्टर रामराज राम जो जेल में ही गुजर गए, उनके बंगले पर सुबह छह बजे ही गया था दो बार और हां, असम हाईवे के बलहा-बीरबन्ना चौक पर डा़ राणा का वो आलीशान बंगला भी बड़े करीब से देखा है,
      तब चारा घोटाला उजागर नहीं हुआ था और ये सब अपनी हनक में रहते। सबको मालूम था कि पूरे डिपार्टमेंट पर एक सिंडिकेट का कब्जा है जो सीएम का करीबी है। तब लालू का पशुपालन से लिंक फैमिली बैकग्राउंड के तौर पर माना जाता था, करप्शन के एंगल ने जोड़ नहीं पकड़ा था। हर ऑफिस डे पर मैं पटना कॉलेज हॉस्टल से निकलता और डायरेक्टर,सेक्रेटेरियट और एजी ऑफिस के चक्कर लगाता शाम में लौट आता कोई फायदा नहीं हुआ तो एक ही रास्ता बचा कि बीते तीस सालों में मेरे पिता ने जहां जहां नौकरी की थी उन सब जगहों पर जाकर उनके सर्टिफायड रिकार्ड्स ले आना।
   हालांकि सिस्टम के साथ मेरे पिता की ये कोई पहली भिड़ंत नहीं थी, पर तब मैं माइनर था और इसबार उनके अस्वस्थ होने के नाते कमान मेरे हाथ में थी, मैं सारी चीजों को देख और समझ रहा था।
    मोटे तौर पर मैं कह सकता हूं कि बिहार के पशुपालन को टॉप टू बॉटम देखा है। पहला खिलौना सीरिंज बनी,पानी भर कर फेंकने में,धीरे धीरे सारे औजारों से करीबी बढ़ी। मैं इलाज के तौर तरीके संजीदगी से देखता और दावे के साथ कह सकता हूं कि एक क्वैक से ज्यादा जानकारी रखता हूं,मुखर्जीनगर के इलाके में कई गायों को कैल्शियम चढ़ाकर खड़ा कर चुका हूं, एक दो प्लास्टर भी किए हैं।
  बचनपन में  मुझे याद है जब दवाएं छोटेवाले ट्रक से सप्लाई होती थी। डिस्पेंशरी एक कमरे की थी तो सबकुछ घर में उतरता और करप्शन के नाम पर यही होता कि   कॉलोनी के किसी घर से फिनाइल और डेटॉल की डिमांड आती तो मैं डिलीवरी ब्वॉय बनकर दे आता और मेरी गाय या भैंस का इलाज सरकारी दवाओं से होता। लेकिन उन आखिरी सालों में वाकई सबकुछ सूख गया था, ज्यादा से ज्यादा महामारी के टाइम में वैक्सीन आ गई वही बहुत है।
   किसी को कोई लेना देना नहीं,  पशुपालन को बिहार में आमतौर पर गोबर डिपार्टमेंट कह कर अनदेखी की जाती थी और उसके डॉक्टर देहातों में बड़े प्यार से घोड़ा डॉक्टर कहे जाते। और रही बात डॉक्टरों की तो ज्यादातर कुंठित थे उन्हें छोड़कर जो चालू थे। क्योंकि पैसा खाने का हर स्तर पर जुगाड़ था। अगर आप चलता पुर्जा नहीं है,फर्जी पोस्टमार्टम और फिटनेस सर्टीफिकेट देकर कोई समझौता नहीं करते तो पड़े रहिए जहां पड़े हैं। तीस साल की नौकरी में एक ही पोस्ट पर काम करने की पिता की कुंठा सिर्फ इस बात से शांत होती कि उनके दो तीन साल सीनियरों का भी नहीं हुआ है। ये बात जुमला बन गई थी कि वेटेनरी कंगाल हो गया है।
  मेरी परवरिश वेटेनरी के पैसे से हुई है, आज कोर्ट ने उनलोगों को सज़ा दी है जिसने इसे कंगाल किया था।
अभी मैने ये फैसला नहीं किया है कि इस बात का दावा करुं या ना करुं कि दोषियों ने मेरा भी हक़ मारा है।

रविवार, 22 सितंबर 2013

ऑल इन वन

पापा की नई पोस्टिंग के बाद नई जगह पर पहुंचे गुड्डू ने घर को व्यवस्थित करने की शुरुआत   टीवी का एंटिना कसने से की। पड़ोस का एक बच्चा सुबह से ही स्टेपनी बना हाथ बंटा रहा था। दोनों ने अभी छत पर पाइप
लगाकर बुस्टर का तार जोड़ना शुरु ही किया कि खड़खड़ाती खटारा साइकिल पर सवार,  एक कल्कि अवतार दरवाजे पर पहुंचा।
दुबला-पतला एकदम लिकपिक, काला- कलूटा, धंसे गाल- घुंघराले बाल
उसे देखते ही मोती तकरीबन चीखा..का रे रजुआ यहां कहां...
-         घर में टीवी है क्या ?
-         हां है, उठाकर ले जाओगे
-         नहीं देखने आया था, एंटिना कसवाना है, हम कसते हैं।
-         तेरा बाप हवाई जहाज भी उतारता है, उसी का पंचर साटो, यहां अपने काम भर काबिल लोग हैं।
तबतक राजू की निगाह कमरे के कोने में रखे सीलिंग फैन,फ्रीज और म्यूजिक सिस्टम पर पड़ चुकी थी। उसने गुड्डू की तरफ इशारा करते हुए पूछा
-         ये सब खुद से ही कस लेंगे
-          ये लोगों का दिमाग भी कसते हैं, कसवाना है
 राजू झेंप गया। थोड़ी देर तक देखता रहा फिर अपनी जिस खटारा साइकिल पर जॉकी बना आया था शूमाकर सा लौट गया। लेकिन मोती ऑन रहा..
-         कहीं कुछ हो ये साला कुत्ता सूंघता हुआ पहुंचता है।
-         कौन है ये
-         साले रामप्रकाश की सबसे बड़ी और उतनी ही हरामी औलाद है।
ये नाम दिन में तीसरी बार सुनने को मिला तो इस बार पूछ ही लिया
-          ये रामप्रकाश कौन है
-         मत पूछिए उस कमीने के बारे में, अरे वो साला ऑलराउंडर है।
-         उसे गाली क्यूं दे रहे हो।
-         रामप्रकसवा को तो सब कोई गाली देता है, इसमें नया क्या है। वो साला है ही ऐसा।
-         आखिर वो क्या करता है।
एक काम करे तो बताउं फिर पिंटू सिर पर ऐसे हाथ रखकर बोला मानो चार्ल्स शोभराज की बॉयोग्राफी बयां करनी हो, उल्टा गुड्डू से ही पूछा.. क्या नहीं करता।
फिर खुद ही बताने लगा..
-         इंजेक्शन देने का काम करता है, एक इंजेक्शन का दो रुपया लेता है। सत्तू की दुकान चलाता है, तीज त्यौहार में हलवाई बनकर बैठ जाता है। बैचलर हाकिमों को ब्रेकफास्ट, लंच और डीनर की फ्री होम डिलिवरी देता है। डॉक्टर चाचा भी तो इतने दिन से वहीं खा रहे थे, रजुआ खाना पहुंचा जाता था। अभी अपना टिफिन ले जाने ही तो आया था। हां, राजमिस्त्री है, बढ़ई है, साइकिल ठीक करने की भी दुकान है।
गुड्डू सोच रहा था ये लिंयोनार्दी विंची का देसी संस्करण  है क्या, तभी मोती ने जोड़ा
साला सूद पर पैसा भी चलाता है, और जानते हैं झाड़फूंक भी जानता है, लोगों की मति मार लेता है।
-         वो कैसे...
-         कैसे चलके देख लीजिए...मारा है ना, मुंशिया उसका बिन खरीदा गुलाम है।
-         गुलाम मतलब
-         मुंशिया दिनभर रमप्रकसवा की सत्तू दुकान पर बैठता है,गोबर काछता है, झाड़ु बहारु भी करता है, उसकी बीवी नर्स है और जितना कमाती है सब पैसा रमप्रकसवा को आकर दे जाती है, मुंशिया टुकुर टुकुर ताकता रहता है
उससे तो बोलती भी नहीं।
साला रजुआ है ना, बिलकुल अपने बाप पर गया है। बाप बेटे साले सब चोरकट हैं।


अभी तक गुणवान होना समाज में शान की बात समझी जाती रही है, रामप्रकाश में ऐसा क्या था जो इतनी प्रोफेशनल डिग्री-डिप्लोमा के बावजूद पब्लिक परसेप्शन एक महान चोरकट का था।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

लाल बाबू

  लाल बाबू गजब हैं,फॉटी प्लस के गबरु जवान। इतना एनर्जेटिक की दुनिया पनाह मांगती। हर घाट का पानी पी चुके लाल बाबू ने जमाने को पानी पिलाने का कोटा ले रखा था। 22-24 साल के लौंडे रहे होंगे, जब नसबंदी हुई। ट्रेन पर मुफत में लदकर गांव से सनीमा देखने शहर आ रहे थे। रास्ते में प्रारब्ध उनके मस्तक पर राख मलने को तैयार बैठा था। जालिमों ने बाकायदा जाल बिछाया, पुलकित प्रफुल्लित टोली ने अभी गाने डॉयलॉग का रियाज शुरू ही किया था कि सरयू नदी के मील भर लंबे मांझी पुल पर ट्रेन ठस्स करके रुक गई। 
   दोनों तरफ पुलिसिए यमदूत बने खड़े थे, एकदम फाउल गेम। भाई साहब, जहां भागने की कहीं जगह ही ना हो, वहां रेस कैसे लग सकती है और ऐसे में बेन जॉनसन ही क्या कर लेते। सबने सरेंडर किया, बेटिकट पकड़ लिए गए। बकौल लाल बाबू उन्हें बकायदा मजिस्ट्रेट के सामने पेश भी किया गया, लेकिन वो बिलकुल नहीं डरे। इसके पहले जवानी के जोश में सिपाहियों को गरिया ही चुके थे। पता नहीं किसने किससे और कैसे खुंदक निकाली, इमरजेंसी में पब्लिक रुल इतना टाइट था कि सजा या चेतावनी के तौर पर सरकार उनके निजी सेक्टर का कनेक्शन काटने में सफल रही।
गजब हो गया, हर तरफ हाहाकार मच गया, अंधियारा छा गया। तीन भाइयों के बीच के इकलौते चिराग लाल बाबू की नसबंदी हो गई। उस शाम गांव में चूल्हा नहीं जला, वैसे भी दो तिहाई घरों में एक ही शाम चूल्हा जलता। टोले मोहल्ले की महिलाएं छाती पीटती आंसू पोंछने आती और हांफते हुए वापस जाती। लाल बाबू के एमए पास विचारशील ताउ ने भी हताशा और निराशा में अनुलोम विलोम करते हुए कहा था...
   सिस्टम ने एक लाइफ तबाह कर दी
लाल बाबू के घराने पर गांव को नाज था और घराने को उनपर। घरवाले हारे नहीं, उन्हें लेकर फौरन शहर के बड़े अस्पताल पहुंचे, जहां ऑपरेशन थियेटर में दो एक छोटे-बड़े ऑपरेशन कर डॉक्टरों ने डैमेज कंट्रोल कर लिया लेकिन पूरे जवार भर में ये ज्यादती जंगल की आग बनकर फैल गई। घरवाले दूसरों के दलान पर ताल ठोक ठोक कर उनकी ताकत वापसी की कहानियां सुनाते, डॉक्टरों की काबलियत की दाद देते। पर हादसे की अनहोनी  लोगों के दिलोदिमाग पर  पत्थर की लकीर बन चुकी थी जिसमें फेरबदल की बहुत गुंजाइश नहीं होती।कोई मानता भी तो किंतु परंतु या अगर मगर का उपसर्ग प्रत्यय लगा ही देता।  हंसी मजाक में ही हवा उनके खिलाफ हो गई और मौजूदा सच रहस्य बन गया। विवाह के कई रिश्ते सिल्की अहसास कराते हुए सर्र से निकल गए। दरअसल अब उनका काम सिर्फ किसी योग्य कन्या से नहीं चलता। कोई भी मां-बाप अपनी बेटी का कैरेक्टर सर्टिफिकेट उनके पोटेंसी टेस्ट की रिपोर्ट के साथ अटैच करने का रिस्क क्यों उठाता। धीरे धीरे उम्र भी निकल गई।
   समाज के आईने में लाल बाबू जबकभी अपनी इमेज खंगालते तो छुट्टे सांढ़ या आवारा बैल की मिली जुली धुंधली तस्वीर उभरती। लाल बाबू ने पब्लिक प्रोपगंडा का दंश खुद पर झेला था, लिहाजा वो इस कला में मास्टर हो गए।

    77 के चुनावों में उन्होंने जमकर हिस्सा लिया। जख्म हरे थे,इसलिए पूरा खानदान इंदिरा शासन को उखाड़ फेंकना चाहता था। इतनी ललक तो कभी राजनारायण को भी शायद नहीं रही हो। इलाके में कहते हैं कि जिस दिन राजनारायण विंध्याचल में मुंडन करा रहे थे उस दिन लाल बाबू ने नाई बुलाकर दुआर पर बाल मुंड़वाए थे। मोरारजी के शपथ ग्रहण वाले दिन सत्यनारायण की पूजा हुई। शाम को दिए भी जले होते लेकिन बारह रुपए सरसों तेल का नारा लगाने के बाद किसी को हिम्मत नहीं हुई। 

रविवार, 15 सितंबर 2013

आत्म परिचय

अपना परिचय देना मेरे हिसाब से सबसे मुश्किल काम है। एक आत्मग्लानि का भाव रहता है कि अभीतक कोई कायदे की चीज सीख नहीं पाया हूं,एक खोज में लगा हूं कि इंसान की काबलियत नापने का तरीका और उसका यूनिट कहीं से मिल जाए। मुझे इस बात का बड़ा कंफ्यूजन रहा है कि मैंने दुनिया देखी है और उसे समझता हूं, कितना सही कितना गलत इसका कोई थर्मामीटर नहीं है। इस ब्ल़ॉग के जरिए मैं अपने अनुभवों को बांटना चाहूंगा,तथ्यात्मक तौर पर सही रहूंगा, पर बातें दो तरह की होती हैं देखी और सुनी, पहली का तो आप ठेका ले सकते हैं सुनने का सबूत कहां से लाएं।
     मै कोई प्रेमचंद या श्रीलाल शुक्ल नहीं लिहाजा किश्तों में भांति भांति के अनुभवों और किरदारों से मिलाने की कोशिश होगी। फुर्सत की जिंदगी में चौपाल बेहद अहम चीज है जहां दो रुपए की चाय के साथ देश और समाज की राजनीति पर घंटो परिचर्चा होती है, कतिपय कारणों से मेरा इन बातों से बड़ा करीबी रिश्ता रहा है.. आगे पसंद या नापसंद आपलोगों पर टिकी है। इससे पहले विचारधारा के तौर पर बता दूं सिवाय पिता के किसी से भी प्रभावित नहीं हुआ। जिन्होंने कहा था कि सबकी फिलॉसफी जाननी और समझनी चाहिए लेकिन उससे प्रभावित होने का कोई मतलब नहीं बनता। ये नहीं कि फ्रायड की किताब पढ़ी तो उसके चेले बन गए या फिर संभोग से समाधि पढ़कर ओशो का गुण गाने लगे, गेरुआ पहनकर संन्यासी हो गए, किसी दिन उठो अपना धर्म बदल लो, अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। राजनीतिक तौर पर कई दुविधाओं से ग्रस्त हूं। खानदानी कांग्रेसी होकर भी कांग्रेस से घोर घृणा करता हूं,जो पूरे देश को दीमक की तरह चाट गई। संघी नहीं हो सकता क्योंकि राष्ट्रवाद लुभाता तो है लेकिन एक लकीर खींचकर ये नहीं कह सकता कि ये राष्ट्रभक्ति का लाइसेंस सिर्फ एक ही समुदाय को मिल सकता है या फिर गांधीवध को दलीलों के दम पर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जायज ठहराया जा सकता है। वामपंथ के काबिलों की इज्जत करता हूं लेकिन वो टैलेंट किस काम का जो सिर्फ विध्वंस करे। इनकी कोई भी बात व्यावहारिक नहीं लगती। कुल मिलाकर एक आम आदमी हूं जिसकी कोई पार्टी नहीं।वोट देने के अलावा अगर कभी चुनना होगा तो पार्टी की बजाय देशहित के साथ हूं। इस लिहाज से अगर आज के मौजूदा माहौल की बात करें तो
ना मोदी, ना राहुल ना केजरीवाल
मेरा नेता अजीत डोभाल